कविता

कविताएं




मेजों पर के अधमिटे नाम...

तुम्हें जानने की पड़ी है..
वह तुम में रहकर भी
फुरसत में है |
तुम्हारी कविता के कैद खाने में से..
कल्पना से दूर सफेद कबूतरों के कोटर हैं
क्षीणकाय लकड़ी की तख्ती पर |

वहाँ वह बैठी है गुमसुम
चुप-चुप-सी कहाँ दिखती है
मुझे
जो बता दूँ...निज-रज़तुम्हें -

अब धूल से दूर होते जाती हैं
जीवन की टेढ़ी मेढी पगडंडियाँ
सड़कों की काली रफ्तार में खो जाती हैं
और सफेद कोठारी का मालिक
उसे जब-जब भी देखता है...
वह कहीं ठहरी हुई ठीठक जाती है..
तुम्हें देखकर... सहमी-सी |

तुममें ही दिख सकें उसके विचारों से दूर की दुनिया
जहाँ रहस्य प्रेम में पगा हों
तुमने शायद कभी देखा होगा? पिंजरें में बंद कपोतों को
जो जगा जायें-

तुम्हारी याद से शायद कभी पनपा होगा प्रेम
ऊसर में.....
बारिश में.....
डूबे हुए रेत के पत्थरों के बीच
बीज की नन्हीं शल्कों में तुम्हें तुम्हारा इतिहास बताते हैं |

पर सच यह है कि तुमने
अपने आप को उस प्रेम से पगा पाया !!
ऐसा
उसे देखकर भी नहीं लगता !
कोठर के दिवारों से
जो कबुतर से चिपके हैं |

मुक्ति उन्हें नहीं मिल सकती
जबतक उन मेजों से नाम नहीं मिट जाते उसी बीच
तबतक हस्तक्षेप नये नामों में लिख दिये जाते हैं, पुराने नामों पर लिप पुत जाते हैं |
 
पुराने रंगों के कुछ नीले-पीले स्याहीपन चेहरे मुखौटे  ही रह जाते हैं |

अक्सर तुम्हारी यादों में
जो  फुरसत के क्षणों में सालता है...

तुम या वह चाहे कितने भी बदलो कंधे
वह कंधा अक्सर याद आता है..
तुम्हारे- मेरे आंसुओं से भींगा
शायद...
तुम्हें यह सब..
अवधेश झा, शोधार्थी, हिंदी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद

कैसे ?
अभी अभी तो लगी है चिंगारी मुझमें;
क्षण में ज्वाला  बन जाऊं कैसे ?
जीवन में है कठिन  राह अनेक ;
क्षण में सरल राह बनाऊं कैसे?

मानव हूँ ! मानवता जानता हूँ मैं
इस मिट्टी के हर रंग को पहचानता हूँ मैं
भय है ! लग  जाए ये रंग कही मुझपे ;
इस भय को ह्रदय से भगाऊं कैसे ?
शुद्धता छोड़ विडम्बक बन जाऊं कैसे ?

प्रकृति के सान्निध्य में ये भौतिक जीवन पड़ा है ;
किन्तु मन तो खुले आकाश से जुड़ा है
ग्रीष्म ऋतु है ! तपती धूप है
इस नीले आकाश में काले मेघ लाऊं कैसे ?
सार्वभौमिक सुख वाली ठंढी फुहार मैं लाऊं कैसे ?

इन्द्रधनुष के सात रंगों समान ;
जीवन रंगों से भरने वाला है
पूरब दिशा से आज फिर ;
नया सूरज निकलने वाला है
कालचक्र के पहिये को विपरीत गति  में चलाऊं कैसे?
आशा से भरे रोशन दीये को हवा की फूंक लगाऊं कैसे ?

वर्तमान को देख ;
वैराग्य आकर्षित करता है मुझे
हे ईश्वर ! समाधान करो !
इस पवन - मन से मोह को दूर हटाऊं कैसे ?
                                      पवन कुमार गौतम
                           शोधार्थी, पृथ्वी एवं अंतरिक्ष विज्ञान केंद्र,
हैदराबाद विश्वविद्यालय

1.

विस्मृति को शापित कर
लोकतंत्र के महापर्व में भूल जाते हैं
अंधे गूंगे हुक्मरानों को
फिर होती है मुर्खता की पुनरावृत्ति
भेड़ों का भविष्य सुरक्षित कर दिया जाता है
दांतों में दुर्वा-दल लिए ढपोर शंख भेड़िये के हाथ
लोकतंत्र का चौथा आदमी
जिसकी तोंद भयावह तरीके से वर्तुलाकार हो रही
चिल्लाता है सत्य, सत्य, वस्तुनिष्ठ सत्य
जिससे शक्ति के प्रति चटोरपन की लार टपक रही होती है
और हम यानि की जनता
नाना डार्विनके निष्कर्ष को गलत करके
विज्ञान को चुनौती देते हुए स्थापित करते हैं
की आदमी के पूर्वज बन्दर नहीं भेड़ है....

2.

रीतते बीत रहा हूँ
थिरा रहा है
परिवर्तन और उसके साथ अपरिहार्य टूटना-चटकना
भीतर फैलता जा रहा है
एक भयावह शून्य
और मरघटिया ख़ामोशी
रिश्ते हृदय
को चूस रहे हैं स्वार्थी भावों के श्वान
और एकाकी में चिल्ला उठता है
नागर बुद्धि का घुग्घु
राजशेखर पाण्डेय
एम.फिल. (हिंदी)

समझौता करें भी तो कैसे करें

जीवन के उदास पलों के साथ समझौता
करें भी तो कैसे करें
सुख के बादलों को जाते देख उनके आने की प्रतीक्षा
करें भी तो कैसे करें
जब दुनियां में इंसान भी सच्चा न मिले
तो उस ईश्वर के न्याय का विश्वास
करें भी तो कैसे करें
दुख के बादलों की घटा का जीवन में आगमन होने पर
उसके बरसने पर शरीर का वज्र हो जाना
सहन करें भी तो कैसे करें
सुनते हैं कि हर आकांक्षा पूरी करने वाला कोई तो है
मगर उस राह पर ले चलने वाला मिलेगा कब ये
तय करें भी तो कैसे करें
मगर सच तो ये है कि इन आँखों ने हैवान को भी
इंसान बनते देखा है
इसलिए ये सारे शिकवे
करें भी तो कैसे करें
आकांक्षा भट्ट
एम.फिल. (हिंदी)
सुबह

पीड़ा का यह अथाह सागर
जिसमें कई मछलियाँ
ढो रही थी जीवन को बेचारगी से
विडम्बना यह कि
मछली मछली को
नोच, खा रही है
मत्स्यावतार के साधक हम
और हमारे विचार मछली जैसे
चलो चलते हैं..., अरे नहीं...
अरे चल कहीं हम न शिकार हो जाए
बड़ीमछली के
एक सुबह की सुनहरी किरण
कई मछलियाँ सागर में
तैर रही हैं साथ-साथ
अपनी धारा बनकर
न्याय के पक्ष में
काश...अगर पहले ही मुक्त हो गए होते
अपने मछलीपन से तो...
तो...?
कोई बड़ीमछली बड़ीनहीं होती..
घाटे कैलाश बलीराम
एम. फिल (हिंदी)

हम आदिवासी कहलाते हैं

दिल में हमारे एक दर्द की चीत्कार सी उठती है
एक ही पेड़ की डाली होकर, डाली बार-बार झुकती है
कहने को तो आदिवासी’, ‘आदिशब्द भी जोड़ा जाता,
लेकिन बात जब भी इस अंधे विकास की आती ?
तो इस कतार में मेरा कहीं नाम न आता....
हक़ की जब भी बात करें
तो गोली ही खाते हैं
ज्यादा हक़ की बात करी
तो नक्सली कह कर मार
दिए जाते हैं
जिस मातृभूमि में पले-बड़े
वही से खदेड़ दिए जाते हैं
अमीर तो और अमीर बनते जाते हैं
हम तो दो वक्त के भोजन के लिए भी
तरस जाते हैं...
सीने पर तुम हमारे खुदाई करो
और जब काम निकल जाये
तो गड्ढ़े यू ही खाली छोड़ दिए
जाते हैं...
आप तो भर लेते हैं जेब अपनी
हम तो भूखे रहकर भी अपनी
भूख मिटाते हैं...
हम आदिवासी कहलाते हैं
मनोज कुमार, एम. फिल. (हिंदी)
आतंकवादी
मैं जब करता हूँ सफ़र,
दिल में लिए एक ख़ौफ़ ज़दा सा डर,
मैं  सोचता हूँ,
कोई पूछ ले तुम कहाँ से हो
मैं अपने आप को बताने में
झिझकता हूँ,
शरमाता हूँ,
सहम सा जाता हूँ,
लेकिन बताता हूँ,
कि आज़मगढ़
लोग हक़ीर और हैरत ज़दा नज़रों से देखते हैं,
हंसते हैं,
मुस्कुराते है,
तन्ज़ भी करते हैं
आज़मगढ़ तो.....
मेरा जवाब होता है कि
चन्द लोग होते हैं
मुआशरा बदनाम होता है।
पंकज कुमार आज़मी
शोधार्थी, उर्दू विभाग,
तीर
तीर[1] तो है
उसको कोई
उठाने वाला नहीं,
तीर तो है
उसको कोई
चलाने वाला नहीं,
तीर तो है
उसको कोई
कसने वाला नहीं,
तीर तो है
उसको कोई
गरम करने वाला नहीं,
तीर तो तपता है
बादल[2] की बुद्धि से
ठण्डा होना पड़ता,
तीर तो तोड़ता
हर किसी का सर
बीच में आ जाती है मानवीयता
तीर में तो
ताकत है
परंतु
कमान[3] के अभाव में
वह कमजोर है।
दुर्गाराव बाणावतु
शोध छात्र, हिंदी विभाग


वर्तमान

वर्तमान
व्यस्त शहर
व्यस्त लोग
जैसे व्यस्तता से गहरा सम्बन्ध हो जीवन का |
टूट रहे हैं
एक एक करके
संबंधों के अदृश्य धागे
झूठ, गुस्सा, दोष, अभिमान
छल, कपट
सब कुछ मिलकर हो गया है
कृत्रिम वर्तमान |
भविष्य के आशंका में सबकुछ
हो गया है कृत्रिम सा |
क्या चाहिए ?
किसका है संधान ?
पैसे के संधान में
सबलोग बढ़ रहे हैं आगे
इंसान अपने स्वार्थ के पीछे
भूल गया है मानवीय कर्तव्य
हो गया है असंवेदनशील
जैसे बनिज लाभ की देवी लक्ष्मी को
किसी खास मकसद से पूज
अंततः कर देता है विसर्जित
महत्वहीन वस्तु सा
निष्ठुर बनते जा रहे हैं इंसान
उससे भी निष्ठुर हैं उनके अभिप्राय
वर्तमान जीवन का |
बर्नाली नाथ

छात्रा  एम.. (हिंदी)

छुआ छु

खेल खेलैया धूम मचैया
अकड़-बकड़ बाम्बे छु।
खेल खेलैया धूम मचैया
ओका-बोका चोर तु।
खेल खेलैया धूम मचैया
बना घर बिगाड़कर छु।
खेल खेलैया धूम मचैया
फिर से घर संभालकर छु।
खेल खेलैया धूम मचैया
पकड़ा गया रामू तु।
खेल खेलैया धूम मचैया
खत्म हुआ अब खेल छुआ छु।
रामनाथ
छात्र, (आई.एम., हिंदी)
मांसे दूरी की दास्तां

मां मेरी मां, प्यारी मां
आज याद आ रही हैं, सब बातें मुझे
आपका मेरे लिए परेशान होना
खुद की चिंता न करके
मुझे हर वो खुशी देना
वह हाथों से खिलाना
परेशान होने पर गोंद में उठाना
वह लोरी सुनाना
कितने दिन थे सुहाने जब हम साथ थे
क्यों वक्त के साथ अब सब कुछ खो गया
अब रह गयी है
बस आपकी मीठी सी यादें
अब जिद भी अपने, सपने भी अपने
किससे कहूँ क्या चाहिए मुझे
मंजिलों को ढूंढते हम कहाँ आ गये
क्यों हम इतनी दूर हो गये
क्यों हम इतनी दूर हो गये
जिनित सबा
एम.. हिंदी (प्रथम वर्ष)

भूमिका

आज फिर से
सड़क पर
एक लड़की की
इज्ज़त का
तमाशा बनाया गया।
सड़क पर खड़े लोग
देखते रहे तमाशा
और कुछ भले लोग
चुप्पी साधे
अपने-अपने घरों को
चले गए
कुछ कानूनी पचड़े से
बचने के लिए
चाहते हुए भी
खामोश रहे।
कब तक...
शांत और चुप होकर
तमाशा देखेंगे लोग
आखिर कब तक
किसी लड़की की इज्ज़त
के साथ
खेलते रहेंगे ये लोग
लेकिन जब ये खामोशी टूटेगी
और..
तमाशा देखने का सिलसिला रुकेगा
तो क्या
किसी लड़की की इज्ज़त का
तमाशा बनना बंद हो जायेगा ?
क्या कभी ऐसा भी दिन आएगा
जब लड़कियां
बिना किसी डर के
घर से बाहर निकलेंगी ???
अनामिका
एम.. हिंदी (प्रथम वर्ष)

दीपक
एक दीपक जला
हमारे नयन में
तब, जब कोई अभिलाषा नहीं
पली थी
हमारे हृदय की सिलवटों में
उसके जलने पर जीवन के
हर अंधेरे मिटते नजर आए
दिन की रौशनी भी
फीकी लगी उस चिराग मात्र के
जलने से
हम और हमारे जीवन की सब
कठिनाइयां सिमट गईं
एक संकुचित दायरे में,
ना जाने उस दीपक में क्या है,
एक प्रेम, एक निष्ठा
एक कर्तव्य, एक ईमानदारी
एक सच्चाई या एक समर्पण
शायद सब कुछ ईश्वर ने
हमें मात्र एक दीपक को जलाकर
दे दिया
कृतज्ञता और श्रद्धा के फल ही
तुम्हें अर्पण कर सकता हूँ
कामना बस यही है
कि ये दीप मेरे जीवन में
तब तक जलता रहे सुगंधित
मन से
जब तक उस चिराग की
आकांक्षा समाप्त
हो जाये
दीपक कुमार गौड़
एम. फिल. (हिंदी)
जिंदगी
सोच रही थी मैं बहुत कुछ
पर मेरे मस्तिष्क में रही थी
एक ही बात
क्या यही है जिंदगी
जिसे हम जिए जा रहे हैं ?
वही रोज की भागदौड़
खाना, पीना, सोना, पढ़ना
या और कुछ भी है हमारी जिंदगी में
जो हमें करना चाहिए
समाज के लिए हमसे उम्मीद
रखने वालों के लिए
जो उम्मीद लगाए बैठे हैं
हम जैसे नए पीढ़ी से
क्या हम पूरा कर पाएगें
उनके आशा और तमन्नाओं को
जो वे हमसे चाहते हैं
हम सबसे चाहते हैं ?
कृष्णा राणी सासमल
एम.फिल, दलित-आदिवासी अध्ययन एवं अनुवाद केंद्र

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