पत्रिका

‘इत्यादि’ भित्ति पत्रिका
संरक्षक                                    संपादक
प्रो. वी. कृष्ण                              धनंजय कुमार चौबे
अध्यक्ष, हिंदी विभाग                         उप संपादक
परामर्शदाता                                बी. दुर्गा राव
प्रो. रविरंजन                              अतुल कुमार पाण्डेय
प्रो. आर. एस. सर्राजू                         भारती कुमारी
प्रो. सच्चिदानंद चतुर्वेदी                       संपादक मण्डल
प्रो. गरिमा श्रीवास्तव                     प्रकाश चिलवंत (पी.एच डी.)
प्रो. आलोक पाण्डेय                       मनोज कुमार (एम. फिल)
डॉ. एम. श्याम राव                        विभा मेधी (एम. ए.)    
डॉ. गजेन्द्र पाठक                        राजेश शशिधरन (एम. ए.)
डॉ. भीम सिंह                           सूर्या कुमारी (एम. ए.)
डॉ. एम. आन्जनेयुलु                      जिनित सबा (एम. ए.)
डॉ. जे. आत्मा राम                   विकास कुमार आज़ाद (एम. ए.)
                                       रामनाथ (आई.एम.ए.)
                               टंकण सहयोग
                                      दिवाकर दिव्य दिव्यांशु
                                       राकेश कुमार सिंह
                                               




अनुक्रम
सम्पादकीय : धनंजय कुमार चौबे
कविताएं
1.     अवधेश झा : मेजों पर अधमिटे नाम...
2.     पवन कुमार गौतम : कैसे ?
3.     राजशेखर पाण्डेय : कुछ कविताएं
4.     आकांक्षा भट्ट : समझौता करें भी तो कैसे करें
5.     घाटे कैलाश बलीराम : सुबह
6.     मनोज कुमार : हम आदिवासी कहलाते हैं
7.     पंकज कुमार आज़मी : आतंकवादी
8.     दुर्गाराव बाणावतु : तीर
9.     हनुमान सहाय मीणा : माँ बनाती थी रोटी
10.          छप्परबन सजाऊदिन निजामोदिन (शुजा) : शहर में आके बसने वाले
11.          बर्नाली नाथ : वर्तमान
12.          रामनाथ : छुआ-छु
13.          जिनित सबा : ‘मां’ से दूरी की दास्तां
14.          अनामिका : भूमिका
15.          दीपक कुमार गोंड़ : दीपक
16.          कृष्णा राणी सासमल : जिंदगी

गज़ल
1.     आफ़ताब अहमद अर्शी : फुरसत के लम्हें
2.     शरीफ अहमद खान : गज़ल

लघु कथा

1.     सुशीला मीणा : करारनामा
2.     काले विनायक : मकान बना दुकान
3.     कृष्ण सोनी : बिंदो
4.     माधुरे श्याम सुन्दर : हत्या-आत्महत्या



सम्पादकीय
        भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, साथ ही उत्तरोत्तर विकास के पथ पर अग्रसर भी है। तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में पिछले कुछ दशकों में भारत ने निश्चित रूप से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। लेकिन इन सबसे इतर मैं मानव जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं, बदलाव की दशाओं और विकास के स्वरुप पर प्रकाश डालना चाहूँगा।
        यह प्रश्न बार-बार मन में कौंधता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के भीतर एक ‘मुकम्मल लोकतंत्र’ की आवश्यकता क्या आज भी बनी हुई नहीं है ? स्वतंत्रता के तक़रीबन 66 वर्ष बाद भी क्यों देश जातिवाद, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, असमानता और अपराध के शिकंजे में जकड़ा हुआ है ? भले ही हम इन मसलों का कारण भूमंडलीकरण, बाजारवाद और पूंजी केन्द्रित समय की सूक्ष्म तहों में खोज भी निकाले लेकिन यह तो तय है कि गंभीर चिंतन, सूक्ष्म विश्लेषण और ठोस कार्यान्वयन के अभाव में इसका हल निकालना संभव नहीं है।
        साहित्य केवल मनुष्य की भावनाओं, इच्छाओं और अनुभवों का लेखा-जोखा भर नहीं है बल्कि मनुष्य की वैचारिकी को विस्तृत और पुष्ट करने तथा यथार्थ को सुसंगठित भाषा में मनुष्य हृदय तक पहुँचाने का कार्य भी करता है। जब मैं ‘वैचारिकी’ की बात कर रहा हूँ तो वे तमाम विमर्श बरबस ही सार्थक जान पड़ते हैं जो अपनी वैचारिकी के बल पर समाज को बदलने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। एक तरफ जहाँ दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श तथा स्त्री विमर्श अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील हैं, वहीं दूसरी तरफ आदिवासी क्षेत्रों का निरंतर अधिग्रहण और हत्याएं, दलितों का दमन, कन्या भ्रूण हत्या और ऑनर किलिंग की घटनाएं कभी मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज के रूप में छाई रहती हैं तो कभी इनकी नोटिस भी नहीं ली जाती है। तात्पर्य यह है कि जब तक समाज मानसिक रूप से बदलाव को स्वीकार नहीं करेगा तब तक बदलाव की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती।
       प्रस्तुत अंक में युवा नवोदित रचनाकारों की कलम ने अपने समय की समस्याओं, स्थितियों और बदलाव को छूने का बखूबी प्रयत्न किया है। कुछ लेखकों की रचनाएं जो इस अंक में प्रकाशित नहीं हो पाई है, वह अगले अंक में प्रकाशित होंगी। आशा है ‘इत्यादि’ पत्रिका को आप सभी युवा लेखकों और पाठकों का सतत सहयोग मिलता रहेगा। नवोदित लेखकों की लेखकीय प्रतिभा और ऊर्जा से युक्त यह अंक आपके समक्ष प्रस्तुत है। 
धनंजय कुमार चौबे


कविताएं




मेजों पर के अधमिटे नाम...

तुम्हें जानने की पड़ी है..
वह तुम में रहकर भी
फुरसत में है |
तुम्हारी कविता के कैद खाने में से..
कल्पना से दूर सफेद कबूतरों के कोटर हैं
क्षीणकाय लकड़ी की तख्ती पर |

वहाँ वह बैठी है गुमसुम
चुप-चुप-सी कहाँ दिखती है
मुझे
जो बता दूँ...निज-रज़तुम्हें -

अब धूल से दूर होते जाती हैं
जीवन की टेढ़ी मेढी पगडंडियाँ
सड़कों की काली रफ्तार में खो जाती हैं
और सफेद कोठारी का मालिक
उसे जब-जब भी देखता है...
वह कहीं ठहरी हुई ठीठक जाती है..
तुम्हें देखकर... सहमी-सी |

तुममें ही दिख सकें उसके विचारों से दूर की दुनिया
जहाँ रहस्य प्रेम में पगा हों
तुमने शायद कभी देखा होगा? पिंजरें में बंद कपोतों को
जो जगा जायें-

तुम्हारी याद से शायद कभी पनपा होगा प्रेम
ऊसर में.....
बारिश में.....
डूबे हुए रेत के पत्थरों के बीच
बीज की नन्हीं शल्कों में तुम्हें तुम्हारा इतिहास बताते हैं |

पर सच यह है कि तुमने
अपने आप को उस प्रेम से पगा पाया !!
ऐसा
उसे देखकर भी नहीं लगता !
कोठर के दिवारों से
जो कबुतर से चिपके हैं |

मुक्ति उन्हें नहीं मिल सकती
जबतक उन मेजों से नाम नहीं मिट जाते उसी बीच
तबतक हस्तक्षेप नये नामों में लिख दिये जाते हैं, पुराने नामों पर लिप पुत जाते हैं |
 
पुराने रंगों के कुछ नीले-पीले स्याहीपन चेहरे मुखौटे  ही रह जाते हैं |

अक्सर तुम्हारी यादों में
जो  फुरसत के क्षणों में सालता है...

तुम या वह चाहे कितने भी बदलो कंधे
वह कंधा अक्सर याद आता है..
तुम्हारे- मेरे आंसुओं से भींगा
शायद...
तुम्हें यह सब..
अवधेश झा, शोधार्थी, हिंदी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद

कैसे ?
अभी अभी तो लगी है चिंगारी मुझमें;
क्षण में ज्वाला  बन जाऊं कैसे ?
जीवन में है कठिन  राह अनेक ;
क्षण में सरल राह बनाऊं कैसे?

मानव हूँ ! मानवता जानता हूँ मैं
इस मिट्टी के हर रंग को पहचानता हूँ मैं
भय है ! लग  जाए ये रंग कही मुझपे ;
इस भय को ह्रदय से भगाऊं कैसे ?
शुद्धता छोड़ विडम्बक बन जाऊं कैसे ?

प्रकृति के सान्निध्य में ये भौतिक जीवन पड़ा है ;
किन्तु मन तो खुले आकाश से जुड़ा है
ग्रीष्म ऋतु है ! तपती धूप है
इस नीले आकाश में काले मेघ लाऊं कैसे ?
सार्वभौमिक सुख वाली ठंढी फुहार मैं लाऊं कैसे ?

इन्द्रधनुष के सात रंगों समान ;
जीवन रंगों से भरने वाला है
पूरब दिशा से आज फिर ;
नया सूरज निकलने वाला है
कालचक्र के पहिये को विपरीत गति  में चलाऊं कैसे?
आशा से भरे रोशन दीये को हवा की फूंक लगाऊं कैसे ?

वर्तमान को देख ;
वैराग्य आकर्षित करता है मुझे
हे ईश्वर ! समाधान करो !
इस पवन - मन से मोह को दूर हटाऊं कैसे ?
                                      पवन कुमार गौतम
                           शोधार्थी, पृथ्वी एवं अंतरिक्ष विज्ञान केंद्र,
हैदराबाद विश्वविद्यालय

1.

विस्मृति को शापित कर
लोकतंत्र के महापर्व में भूल जाते हैं
अंधे गूंगे हुक्मरानों को
फिर होती है मुर्खता की पुनरावृत्ति
भेड़ों का भविष्य सुरक्षित कर दिया जाता है
दांतों में दुर्वा-दल लिए ढपोर शंख भेड़िये के हाथ
लोकतंत्र का चौथा आदमी
जिसकी तोंद भयावह तरीके से वर्तुलाकार हो रही
चिल्लाता है सत्य, सत्य, वस्तुनिष्ठ सत्य
जिससे शक्ति के प्रति चटोरपन की लार टपक रही होती है
और हम यानि की जनता
नाना डार्विनके निष्कर्ष को गलत करके
विज्ञान को चुनौती देते हुए स्थापित करते हैं
की आदमी के पूर्वज बन्दर नहीं भेड़ है....

2.

रीतते बीत रहा हूँ
थिरा रहा है
परिवर्तन और उसके साथ अपरिहार्य टूटना-चटकना
भीतर फैलता जा रहा है
एक भयावह शून्य
और मरघटिया ख़ामोशी
रिश्ते हृदय
को चूस रहे हैं स्वार्थी भावों के श्वान
और एकाकी में चिल्ला उठता है
नागर बुद्धि का घुग्घु
राजशेखर पाण्डेय
एम.फिल. (हिंदी)

समझौता करें भी तो कैसे करें

जीवन के उदास पलों के साथ समझौता
करें भी तो कैसे करें
सुख के बादलों को जाते देख उनके आने की प्रतीक्षा
करें भी तो कैसे करें
जब दुनियां में इंसान भी सच्चा न मिले
तो उस ईश्वर के न्याय का विश्वास
करें भी तो कैसे करें
दुख के बादलों की घटा का जीवन में आगमन होने पर
उसके बरसने पर शरीर का वज्र हो जाना
सहन करें भी तो कैसे करें
सुनते हैं कि हर आकांक्षा पूरी करने वाला कोई तो है
मगर उस राह पर ले चलने वाला मिलेगा कब ये
तय करें भी तो कैसे करें
मगर सच तो ये है कि इन आँखों ने हैवान को भी
इंसान बनते देखा है
इसलिए ये सारे शिकवे
करें भी तो कैसे करें
आकांक्षा भट्ट
एम.फिल. (हिंदी)
सुबह

पीड़ा का यह अथाह सागर
जिसमें कई मछलियाँ
ढो रही थी जीवन को बेचारगी से
विडम्बना यह कि
मछली मछली को
नोच, खा रही है
मत्स्यावतार के साधक हम
और हमारे विचार मछली जैसे
चलो चलते हैं..., अरे नहीं...
अरे चल कहीं हम न शिकार हो जाए
बड़ीमछली के
एक सुबह की सुनहरी किरण
कई मछलियाँ सागर में
तैर रही हैं साथ-साथ
अपनी धारा बनकर
न्याय के पक्ष में
काश...अगर पहले ही मुक्त हो गए होते
अपने मछलीपन से तो...
तो...?
कोई बड़ीमछली बड़ीनहीं होती..
घाटे कैलाश बलीराम
एम. फिल (हिंदी)

हम आदिवासी कहलाते हैं

दिल में हमारे एक दर्द की चीत्कार सी उठती है
एक ही पेड़ की डाली होकर, डाली बार-बार झुकती है
कहने को तो आदिवासी’, ‘आदिशब्द भी जोड़ा जाता,
लेकिन बात जब भी इस अंधे विकास की आती ?
तो इस कतार में मेरा कहीं नाम न आता....
हक़ की जब भी बात करें
तो गोली ही खाते हैं
ज्यादा हक़ की बात करी
तो नक्सली कह कर मार
दिए जाते हैं
जिस मातृभूमि में पले-बड़े
वही से खदेड़ दिए जाते हैं
अमीर तो और अमीर बनते जाते हैं
हम तो दो वक्त के भोजन के लिए भी
तरस जाते हैं...
सीने पर तुम हमारे खुदाई करो
और जब काम निकल जाये
तो गड्ढ़े यू ही खाली छोड़ दिए
जाते हैं...
आप तो भर लेते हैं जेब अपनी
हम तो भूखे रहकर भी अपनी
भूख मिटाते हैं...
हम आदिवासी कहलाते हैं
मनोज कुमार, एम. फिल. (हिंदी)
आतंकवादी
मैं जब करता हूँ सफ़र,
दिल में लिए एक ख़ौफ़ ज़दा सा डर,
मैं  सोचता हूँ,
कोई पूछ ले तुम कहाँ से हो
मैं अपने आप को बताने में
झिझकता हूँ,
शरमाता हूँ,
सहम सा जाता हूँ,
लेकिन बताता हूँ,
कि आज़मगढ़
लोग हक़ीर और हैरत ज़दा नज़रों से देखते हैं,
हंसते हैं,
मुस्कुराते है,
तन्ज़ भी करते हैं
आज़मगढ़ तो.....
मेरा जवाब होता है कि
चन्द लोग होते हैं
मुआशरा बदनाम होता है।
पंकज कुमार आज़मी
शोधार्थी, उर्दू विभाग,
तीर
तीर[1] तो है
उसको कोई
उठाने वाला नहीं,
तीर तो है
उसको कोई
चलाने वाला नहीं,
तीर तो है
उसको कोई
कसने वाला नहीं,
तीर तो है
उसको कोई
गरम करने वाला नहीं,
तीर तो तपता है
बादल[2] की बुद्धि से
ठण्डा होना पड़ता,
तीर तो तोड़ता
हर किसी का सर
बीच में आ जाती है मानवीयता
तीर में तो
ताकत है
परंतु
कमान[3] के अभाव में
वह कमजोर है।
दुर्गाराव बाणावतु
शोध छात्र, हिंदी विभाग

माँ बनाती थी रोटी
माँ बनाती थी रोटी
पहली गाय की
आखिरी कुत्ते की
एक बामणी दादी की
एक मेहतरानी बाई की
......
हर सुबह सांड आ जाता
दरवाजे पर गुड़ की डली के लिए
कबूतर का चुग्गा
कीड़ीयों का आटा
ग्यारह, अमावस, पूनम का सीधा
डाकौत का तेल
काली कुतिया के ब्याने पर
तेल गुड़ का हलवा
सब कुछ निकल आता था
उस घर से
जिसमें विलासिता के नाम पर
एक टेबल पंखा था
आज सामान से भरे घर से
कुछ भी नहीं निकलता
   सिवाय कर्कश आवाजों के......
हनुमान सहाय मीणा
शोधार्थी, दलित-आदिवासी अध्ययन एवं अनुवाद केंद्र

फुरसत के लम्हें
बहुत फुरसत के हैं लम्हें
बताओं मैं करूँ क्या अब
तुम्हें जो मिलती नहीं फुरसत
हमें फुरसत ही फुरसत है
कभी जब सोचता हूँ मैं
तुम्हारे बारे में अक्सर
मुझे अहसास होता है
मुहब्बत की ये शर्तों पर
जो तुमने तय किया मुझ पर
समझ में है नहीं आता
किया ऐसा है क्यों तुमने
मुझे तेरी जरुरत थी
मगर फुरसत नहीं तुमको
कहीं ऐसा न हो जाये
किसी दिन ऐसा न हो जाये
मैं मसरूफ हो जाऊं
तुम्हें फुरसत ही फुरसत हो
और मेरी जरुरत है
                                            आफ़ताब अहमद अर्शी
                        शोधार्थी, उर्दू विभाग                                                                                                                                       
गज़ल
आ गई याद तेरी शाम से पहले-पहले
फिर से किन्देल[4] जली शाम से पहले-पहले
तेरी खुश्बू जो कहीं दूर खला[5] में गुम थी
दस्तकें देने लगी शाम से पहले-पहले
इस पे क्या जादे सफर बांध के निकले कोई
जो सड़क टूट गई शाम से पहले-पहले
सुनने लगती है तेरे पाँव की आहट अक्सर
दिल की सुनसान गली शाम से पहले-पहले
बल्ब तो सारे मकानों में हुए है रौशन
मोम बत्ती ही बुझी शाम से पहले-पहले
रेत सी भर गई आँखों में हमारी आखिर
जाने क्या बात हुई शाम से पहले-पहले
ऐसा लगता है कहीं रेल रूकी है मसऊद
दूर सीटी बजी शाम से पहले-पहले
मूल लेखक-मसऊद जाफरी
अनुवादक- शरीफ अहमद खान
शोधार्थी, उर्दू विभाग,


शहर में आके बसने वाले
शहर में आके बसने वाले
बसने लगते है यहीं
यहीं कहीं जाने अनजाने शहरों में
अपनों को भूले, अपनेवालों को भूले
मानो कुछ लेन-देन ही नहीं उनसे
भूल आते है
वो माँ जो बेचैन रहती
गर वो जरा भी देर घर लौट आते
वो बाप की बेचैनी और प्यार का गुस्सा
भूलकर सब अहसान उनके
बुढ़ापे में अकले छोड़ आते है ये
शहर में आके बसनेवाले

छप्परबन सजाऊदिन निजामोदिन (शुजा)
शोधार्थी, तुलनात्मक साहित्य

वर्तमान

वर्तमान
व्यस्त शहर
व्यस्त लोग
जैसे व्यस्तता से गहरा सम्बन्ध हो जीवन का |
टूट रहे हैं
एक एक करके
संबंधों के अदृश्य धागे
झूठ, गुस्सा, दोष, अभिमान
छल, कपट
सब कुछ मिलकर हो गया है
कृत्रिम वर्तमान |
भविष्य के आशंका में सबकुछ
हो गया है कृत्रिम सा |
क्या चाहिए ?
किसका है संधान ?
पैसे के संधान में
सबलोग बढ़ रहे हैं आगे
इंसान अपने स्वार्थ के पीछे
भूल गया है मानवीय कर्तव्य
हो गया है असंवेदनशील
जैसे बनिज लाभ की देवी लक्ष्मी को
किसी खास मकसद से पूज
अंततः कर देता है विसर्जित
महत्वहीन वस्तु सा
निष्ठुर बनते जा रहे हैं इंसान
उससे भी निष्ठुर हैं उनके अभिप्राय
वर्तमान जीवन का |
बर्नाली नाथ

छात्रा  एम.. (हिंदी)

छुआ छु

खेल खेलैया धूम मचैया
अकड़-बकड़ बाम्बे छु।
खेल खेलैया धूम मचैया
ओका-बोका चोर तु।
खेल खेलैया धूम मचैया
बना घर बिगाड़कर छु।
खेल खेलैया धूम मचैया
फिर से घर संभालकर छु।
खेल खेलैया धूम मचैया
पकड़ा गया रामू तु।
खेल खेलैया धूम मचैया
खत्म हुआ अब खेल छुआ छु।
रामनाथ
छात्र, (आई.एम., हिंदी)
मांसे दूरी की दास्तां

मां मेरी मां, प्यारी मां
आज याद आ रही हैं, सब बातें मुझे
आपका मेरे लिए परेशान होना
खुद की चिंता न करके
मुझे हर वो खुशी देना
वह हाथों से खिलाना
परेशान होने पर गोंद में उठाना
वह लोरी सुनाना
कितने दिन थे सुहाने जब हम साथ थे
क्यों वक्त के साथ अब सब कुछ खो गया
अब रह गयी है
बस आपकी मीठी सी यादें
अब जिद भी अपने, सपने भी अपने
किससे कहूँ क्या चाहिए मुझे
मंजिलों को ढूंढते हम कहाँ आ गये
क्यों हम इतनी दूर हो गये
क्यों हम इतनी दूर हो गये
जिनित सबा
एम.. हिंदी (प्रथम वर्ष)

भूमिका

आज फिर से
सड़क पर
एक लड़की की
इज्ज़त का
तमाशा बनाया गया।
सड़क पर खड़े लोग
देखते रहे तमाशा
और कुछ भले लोग
चुप्पी साधे
अपने-अपने घरों को
चले गए
कुछ कानूनी पचड़े से
बचने के लिए
चाहते हुए भी
खामोश रहे।
कब तक...
शांत और चुप होकर
तमाशा देखेंगे लोग
आखिर कब तक
किसी लड़की की इज्ज़त
के साथ
खेलते रहेंगे ये लोग
लेकिन जब ये खामोशी टूटेगी
और..
तमाशा देखने का सिलसिला रुकेगा
तो क्या
किसी लड़की की इज्ज़त का
तमाशा बनना बंद हो जायेगा ?
क्या कभी ऐसा भी दिन आएगा
जब लड़कियां
बिना किसी डर के
घर से बाहर निकलेंगी ???
अनामिका
एम.. हिंदी (प्रथम वर्ष)

दीपक
एक दीपक जला
हमारे नयन में
तब, जब कोई अभिलाषा नहीं
पली थी
हमारे हृदय की सिलवटों में
उसके जलने पर जीवन के
हर अंधेरे मिटते नजर आए
दिन की रौशनी भी
फीकी लगी उस चिराग मात्र के
जलने से
हम और हमारे जीवन की सब
कठिनाइयां सिमट गईं
एक संकुचित दायरे में,
ना जाने उस दीपक में क्या है,
एक प्रेम, एक निष्ठा
एक कर्तव्य, एक ईमानदारी
एक सच्चाई या एक समर्पण
शायद सब कुछ ईश्वर ने
हमें मात्र एक दीपक को जलाकर
दे दिया
कृतज्ञता और श्रद्धा के फल ही
तुम्हें अर्पण कर सकता हूँ
कामना बस यही है
कि ये दीप मेरे जीवन में
तब तक जलता रहे सुगंधित
मन से
जब तक उस चिराग की
आकांक्षा समाप्त
हो जाये
दीपक कुमार गौड़
एम. फिल. (हिंदी)
जिंदगी
सोच रही थी मैं बहुत कुछ
पर मेरे मस्तिष्क में रही थी
एक ही बात
क्या यही है जिंदगी
जिसे हम जिए जा रहे हैं ?
वही रोज की भागदौड़
खाना, पीना, सोना, पढ़ना
या और कुछ भी है हमारी जिंदगी में
जो हमें करना चाहिए
समाज के लिए हमसे उम्मीद
रखने वालों के लिए
जो उम्मीद लगाए बैठे हैं
हम जैसे नए पीढ़ी से
क्या हम पूरा कर पाएगें
उनके आशा और तमन्नाओं को
जो वे हमसे चाहते हैं
हम सबसे चाहते हैं ?
कृष्णा राणी सासमल
एम.फिल, दलित-आदिवासी अध्ययन एवं अनुवाद केंद्र

(लघु लोक-कथा)
करारनामा
एक बार बिल्ली को अपनी संतान की शादी करनी थी। लेकिन शादी की तैयारियों के लिए उसके पास पैसे नहीं थे। इसलिए वह अपने मित्र कुत्ते के पास पाँच रूपये उधार मांगने के लिए गई। कुत्ते ने खुशी-खुशी उसे रुपये दे दिए, और साथ में यह करारनामा भी लिख कर दे दिया कि जब कभी बिल्ली के पास रुपये होगें तब वापिस दे देगी। कुत्ता उस पर रुपये लौटाने के लिए दबाब नहीं डालेगा। बिल्ली उन रुपयों से अपनी संतान की शादी की तैयारियों में लग गई, और करारनामे को एक कोने में रख दिया। उस कोने के पास ही चूहों के बिल थे। उन चूहों ने उस करारनामे को कुतर दिया। उधर शादी होते ही वह कुत्ता करारनामे से मुकर गया, और बिल्ली से पैसे मांगने लग गया। बिल्ली ने उसे समझाया कि अभी उसके पास पैसे नहीं हैं। साथ ही उसे करारनामे की याद दिलायी, लेकिन कुत्ता नहीं माना तो बिल्ली उस करारनामे को लेने गई। बिल्ली ने उस कोने के पास देखा कि चूहों ने उसके करारनामे को कुतर दिया है तो बिल्ली को बहुत गुस्सा आया, ओर वह चूहों के पीछे भागी, चूहे झट से अपने बिल में घुस गये। बिल्ली भी कुत्ते के डर से छुपछुप कर रहने लगी। तभी से जब कभी भी कुत्ता बिल्ली को देखता है तो वह अपने पाँच रुपये बिल्ली से वापिस लेने के लिए उसके पीछे भागता है, और बिल्ली के करारनामे को कुतर देने के कारण बिल्ली चूहों के पीछे भागती है।
(राजस्थान के सवाईमाधोपुर एंव करौली जिले के माड़ क्षेत्र की लोक कथा)
                                  सुशीला मीणा
शोधार्थी (हिन्दी विभाग)



मकान बना दुकान
         श्रीनिवास मंदिर की सिढ़ियों पर बैठा कुछ सोच रहा था। दर्शन करने के बाद श्रीनिवास का मित्र रामनिवास ने श्रीनिवास से पुछा,इत्ते टेंशन में कयकू है मिया क्या सोचरे?” श्रीनिवास कहता है,कुछ नहीं यार पेन्शन के पैसों से मकान बनवाया लेकिन कोई भी आकर कम्पाउन्ड की दीवार धार मार के चला जाता है। रामनिवास बोला, “इसमें कौन-सी नई बात है मिया ऐसा हर दिवार पर होता। इसके के लिए कुछ किया की नहीं?” श्रीनिवास उदास स्वर में कहता है, बहुत किया मियाँ ..दिवारों पर हिन्दी, अंग्रेजी, तेलुगु में लिखा कृपया यहाँ नको करों बोलके लिखा, लोगाँ नहीं सुनरे बोलके मैंने दिवार पर लिखा अबे गधे यहाँ मत कर, खतरे की निशानी भी बनाई लेकिन लोगाँ सुनतेच नैय श्रीनिवास,हो ऐसा है क्या एक काम करों तुम हर दिवार भगवान का फोटो लगाओ, मेरेकु भी ऐसा ही सता रहे थे, मैने दिवार भगवान पर फोटो लगाये, अब लोगा आते जाते फोटो को नमस्कार करके चले जाते श्रीनिवास खुश होते हुए बोला,मैं भी ऐसाईच करतूँ
कुछ दिनों बाद उसी मंदिर में फिर श्रीनिवास सोचते हुए बैठा था, रामनिवास ने आकर श्रीनिवास का हाल पुछा। जवाब ने श्रीनिवास ने कहा,अरे यार दिवार पर भगवान के फोटो लगाने के बाद कुछ मजदुर फोटो की पुजा कर्रे, अब तो कुछ दिनां बाद तो वहाँ सबेरे-शाम आरती होने लगी, सबेरे की नींद हराम हो गई है.. क्या करूँ समझ में नहीं आरा?” रामनिवास ने मुस्कारते हुए कहा,इसमे इत्ता कयकू सोचरा मियाँ? यह तो खुशी की बात है, तुम्हारे घर तो लक्ष्मी चलकर आ रही है, बस इतना करों कोई दुसरा पुजारी आने से पहले खुद वहाँ पुजारी बन जाओं, रिटार्यमेंन्ट के बाद आमदनी का अच्छा काम है, आई कुछ बात समझ में श्रीनिवास ने मुस्कुराते हुए कहा,बात तो कुछ-कुछ समझ में आरी..
अब रामनिवास गाँव के मंदिर नहीं आते अब वे अपने काम में व्यस्त रहते हैं। उनका दिल भी बहलता है और आमदनी भी घर बैठे हो जाती है।
काले विनायक
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
            हैदराबाद विश्वविद्यालय

हत्याआत्महत्या

    अरे गोबर सुना है सरकार ने मनरेगा के अंतर्गत तुम्हें सौ दिन का काम दिया है।
हा चाचागोबर ने कहा।
      लेकिन बेटा तुम्हारे साथ तुम्हारे पिता होरी दिखाई नहीं दे रहे हैचाचा ने कहा।
नहीं चाचा वह इस काम पर नहीं आते वह अपने खेतों में ही काम करते हैं, वहीं उनको फुरसत नहीं मिलती है, मैंने कहा भी था चलो मनरेगा के काम पर, तो उन्होंने कहा मैं एक किसान हूँ किसानियत में ही मेरी इज्जत है, मैं यही करना पसंद करूंगा
      लेकिन बेटा यह सरकार मजदूरों के लिए तो काम मुहैय्या करा रही है पर किसानों के लिए क्यूँ कुछ नहीं करती, किसान भी तो गरीब ही होते हैंचाचा समझा रहे थे।
लेकिन गोबर बात बदल देता है सुना है पुष्पा के पिताजी ने आत्महत्या की है, ऐसी क्या मज़बूरी थी चाचा उनको” ?
      अरे गोबर तू कितना भोला है रे। सारा गाँव जानता है कि दहेज़ में कम पैसों के कारण पुष्पा के घर वालों ने उसे घर से निकाल दिया। देखो बेटा जब घर में तीनतीन जवान बेटियां हों तो बाप पर क्या गुजरती है यह वही जानता हैचाचा ने गोबर को पुष्पा के घर का पूरा विवरण बताया।
      बेटा तुम्हारे पिता होरी की तरह थोड़े ही होते है जो ढाढस बांधकर अपने बिरादरी की नाक न कट जाये इसलिए जी रहे है अपने इज्जत के खातिरचाचा थोडा रुककर और कहते है।
      लेकिन बेटा इस समाज में पुष्पा के पिता की तरह ऐसे कितने लोग हैं जो हर दिन आत्महत्या करने पर मजबूर है
      बेटा यह सरकार किसानों की तरफ क्यों नहीं देख रही है ? इसका कोई इलाज नहीं इनके पासचाचा के आँखों में आंसू आ गए।
      हा चाचा यह बात तो बिलकुल मेरे ध्यान में आई ही नहीं
      एक तरफ पुष्पा के पिता तथा दूसरी ओर सरकारी योजनाओं के विचार में गोबर सोचते हुए खो जाता है।
माधनुरे श्यामसुंदर
शोधार्थी, हिंदी विभाग


बिंदो
शाम ढल गई थी। झींगुर की आवाज से अमावश की रात और भी भयावह लग रही थी। चांदनी के बिना आकाश में टंगे तारें निष्प्राण लग रहे थे। पता नहीं सिसकते सिसकते बिंदो को कब नींद आ गई।
आज माँ को किसी ने बताया कि बिंदो मास्टर साहब के छोटे भाई के साथ हंस हंस कर बात कर रही थी। बस ! माँ पर पूतना सवार हो गयी। धान के अंटिये की तरह देंगा दिया मासूम को। बेचारी बिंदो को क्या पता कि हमउम्र लड़कों से बात करना इतनी बड़ा गुनाह है। वह तो गांव के सभी लोगों की तरह मास्टर साहब को मासाब और उनके छोटे भाई को मोहना कहती है। जब भी मोहना उसकी गली में आता है तो वह उससे बीजगणित का हिसाब सीखती है, बस और तो कुछ भी नहीं। पर इतनी सी बात के लिए माँ ने बेरहमी से पीट दिया अपने कोख में पली दुलारी को।
सुबह हो चुकी थी। बिंदो जग गयी, पर बेजान सी बिस्तर पर पड़ी थी। समूचा शरीर पोर पोर हो गया था। गरम मांर में हाथ पड़ते से एक बड़ा सा फफोला निकल आया था। माँ का तांडवी रूप अभी भी उसके आँखों के सामने घूम रहा था। उसकी अपनी चीखें अभी भी उसके कानो में गूंज रही थी। बिंदो ने मन हीं मन कसम खाई.. अब कभी भी मोहना से बात नहीं करुँगी...! कुछ भी नहीं पूछूंगी...!!  
शाम हो गई थी। दिया बाती देकर बिंदो पढ़ने बैठी थी, कि तभी लगा आंगन में कोई खड़ा है। माँ रसोई में थी। बिंदो डर गयी। पर मन की उत्सुकता ने उसे आंगन में ले आया। देखा मोहना सामने खड़ा है। बिंदो साहस कर पास आयी। कुछ पल तक यूँ हीं एक दूसरे की आँखों में झांकते रहे। मोहना थोड़ा और नजदीक आ गया। बिंदो निरीह-सी अपनी हथेली पसार दी। मोहना तड़प उठा... हाथ बढ़ा कर छूना चाहा... बिंदो चिहुक गयी। बिंदो ने देखा, जितना दर्द वह महसूस कर रही है उससे कहीं ज्यादा मोहना की आँखों में तैर रहा है...। रसोईघर से प्याज तलने जैसी महक आयी और एक कड़क आवाज... चम्मचा मांज कर कहाँ रखी...? अरी ओ...कहाँ मर गयी...?” माँ की आवाज सुन मोहना आंगन से चला गया। बिंदो आंगन का दरवाजा बंद कर रसोईघर में चली गयी।    

कृष्ण सोनी
शोधार्थी, हिंदी विभाग


[1] .आदिवासी,
[2] . अधिकारी/पूंजीपति
[3] . नेतृत्व करने वाला (नायक)


[4] . जिसमें चिराग जलाकर लचकाते हैं।
[5] .खाली जगह

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